कहीं दीप जले…कही दिल

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हमारी वफाओं की ‘कीमत लगाई जा रही है,
कुछ यूं हमारी मुहब्बत आज़माई  जा रही है.

उनका’बहाना कि रेनोवेशन है हमारे घर का,
बाद में फिर “वही” खिड़की हटाई जा रही है.

उसूल -ए- मुहब्बत’ अभी भी बदला नहीं है,
पर’कागजों’में’तस्वीर’उम्दा’दिखाई’जा’रही’है.

ये’तजुरबा मिला है खुद को खुद में खोने से,
बिन’मुहब्बत’जिंदगी’बस’निभायी जा’रही’है.

ना जाने ऐसे कौन से सदमे जी रही हो तुम,
यहां रो रोकर के मेरी सारी तराई जा रही है.

बेताब’तूफानों की हवा उस बाम’ओ’दर को,
खुशियों’के’आलम’कि’हंसी’उड़ाई’जा’रही’है.

अब तो इस ज़मीं के होंठ तक फटने लगे हैं,
न जाने क्यों बिन बरसे ये जुलाई जा रही है.

तुम पर उधारी इश्क़ की जो भी है “शिवांश”
वो आब-ए-चश्म बहाकर  चुकाई जा रही है

       





कोई तो हो….

जिससे दिल के सारे गम और खुशियां बाट सकूं..!


कोई तो हो

जो इस दौर में भी पुराने जमाने वाला सा इश्क करे…!


कोई तो हो

जब हम उसकी गली से गुजरे तो वो

हमे देखने को निकले…


कोई तो हो.

जो मेरे ही जितना इश्क मुझसे करे…!


कोई तो हो.

जब मैं रूठ जाऊ तो वो मुझे अपनी

खट्टी मीठी बातों से मनाए….


कोई तो हो.

जो मोहहब्बते नही, सिर्फ मुझसे मोहब्बत करे….!



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